Social Media child Mental Health
Social Media child Mental Health: सामान्य तौर पर 1 से 13 वर्ष की उम्र के बीच बच्चों का दिमाग तेज चलता है. बच्चों के शरीर की अन्य गतिविधियां भी तुलनात्मक रूप से अधिक तेज होती हैं. विशेषज्ञों का भी मानना है कि 1-13 वर्ष की उम्र के दौरान बच्चों का बौद्धिक और शारीरिक विकास तो होता ही है, साथ ही भावनात्मक क्षमता का भी विकास बड़ी ही तेजी से होता है. ऐसे में यह उम्र बेहद संवेदनशील होती है. इस उम्र में गलती बच्चों के साथ की गई गलती पूरी पर्सनैलिटी पर भारी पड़ती है. अगर जरा सी चूक हुई तो बच्चों का विकास पटरी से उतरने का भी खतरा रहता है. आसान भाषा में कहा जाए तो इस उम्र में बच्चों का शारीरिक और बौद्धिक विकास ज्यादा से ज्यादा खेलने और संगठित खेल खेलने से बढ़ता है. अगर इस उम्र में बच्चों से श्रम या अन्य काम कराया जाए तो इसका उनके व्यक्तित्व विकास पर विपरीत असर पड़ता है.
पिछले कुछ सालों से सोशल मीडिया पर लोग एक्टिव हुए हैं. बच्चों का भी रील्स बनाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है. संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान पिछले दिनों शून्यकाल (Zero Hour) में राज्यसभा सदस्य सुधा मूर्ति ने देश में मौजूदा समय में सोशल मीडिया पर बच्चों के चित्रण (Portrayal) को लेकर गंभीर चिंता जताई है. राज्यसभा में अपनी बात रखते हुए सुधा मूर्ति ने कहा कि केंद्र सरकार से गुजारिश की है कि वह स्पष्ट और कठोर नियामक रूपरेखा (Regulatory Framework) लाए, जिससे सोशल मीडिया खासतौर से यूट्यूब और इंस्टाग्राफ पर बच्चों की रील्स बनाने के लिए इस्तेमाल से रोका जा सके.
शिक्षिका, लेखिका और राज्यसभा सदस्य सुधा मूर्ति का का कहना है कि सोशल मीडिया पर रील्स बनाने के दौरान बच्चों का जमकर इस्तेमाल हो रहा है. यह एक कड़वी सच्चाई है, जिसके बारे में जानकर पेरेंट-इन्फ्लुएंसर नाराज भी हो सकते हैं. उन्होंने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान अपनी बात रखते हुए कहा कि खुद पैरेंट्स ही अपनी बच्चों का Online Content Machine बनाकर उनके बचपन का पोस्टमॉर्टम कर रहे हैं. उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि रोना, हंसना और गाना यानी हर मूड कैमरे पर. इस तरह बच्चा इंसान कम और रील बनाने का प्रॉप ज्यादा हो गया है. अपनी बात संसद में रखते हुए उन्होंने सरकार से मांग की है कि बच्चों को ऑनलाइन शो-पीस की तरह बेचने के खिलाफ सख्त कानून बने.
सुधा मूर्ति ने कहा कि रील्स बनाने में बच्चों का इस्तेमाल करना दरअसल असल में बच्चे की निजता की हत्या (privacy murder) है. व्यूज के लिए बच्चों का बिना मन के जबरन नचाना और गंवाना सीधे तौर पर मानसिक शोषण (mental exploitation) है. उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि बचपन को कंटेंट बनाकर उन्हें Attention Addiction की ओर से धकेला जा रहा है. इसके साथ ही बच्चे Identity Crisis की तरफ जा रहे हैं. बच्चों को कैमरे के सामने खड़ा करके यह कहना है कि वो डांस करे, हंसे और रोए, यह तो सीधे-सीधे शोषण है.
सुधा मूर्ति ने सवालिया लहजे में पैरेंट्स पर सवाल उठाते हुए कहा कि जो बच्चा आज रील्स बना रहा है वही भविष्य में lost innocence , anxiety और validation की चपेट में आ सकता है. इसके लिए जाहिर तौर पर बच्चों के माता-पिता ही जिम्मेदार होंगे. पैरेंट्स की सोच पर सवाल उठाते हुए लेखिका ने कहा कि बचपन को बेचने का अधिकार किसी को नहीं है. यहां तक कि बच्चों के माता-पिता तक को भी नहीं है.
देश विदेश के विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के बौद्धिक का सही उम्र 14-15 वर्ष ही होती है. इस उम्र में बच्चों का शारीरिक विकास तेजी से होता है. इस उम्र में बौद्धिक और भावनात्मक क्षमताओं में भी अत्यधिक इजाफा होता है. अगर इसके विपरीत कुछ हो रहा है तो जाहिर है कि बच्चों का विकास लड़खड़ाने लगता है. होना यह चाहिए कि बच्चे इस उम्र में खेलें, कूंदें और संगठित से खेल खेलने रुचि लें. यही वह उम्र होती है जब बच्चे खेलना सीखते हैं. इसी उम्र में वो बोलना शुरू करते हैं और स्वतंत्र होते हैं. सामान्य तौर पर बच्चों का बचपन 6 से 12 साल की उम्र तक बाल्यावस्था के रूप में भी जाना जाता है. 6 वर्ष की उम्र में बच्चा कुछ-कुछ समझने लगता है. ऐसे बच्चों को जब रील्स बनाने में लगाया जाएगा तो वो खेल-कूद, सामाजिक गतिविधियां या अच्छी शिक्षा से दूर हो सकते हैं.
मनोचिकित्सक, अभिनेता और थिएटर कलाकार मोहन अगाशे का कहना है कि बच्चों का सही उम्र में विकास बहुत जरूरी है. बच्चों के थिएटर पर उनका मानना है कि मनोचिकित्सक की ट्रेनिंग उनकी एक्टिंग में अलग ही गहराई लाता है. मोहन अगाशे की मानें तो अदाकार या कलाकार बनने की शुरुआत असल में उसके बचपन में ही शुरू हो जाती है. जरूरी नहीं कि स्टेज पर हो, घर ही उसके लिए स्टेज होता है.
एक बच्चा आगे जाकर क्या बनेगा? यह उसके बचपन की परवरिश, शिक्षा और माहौल से ही तय हो जाता है. अपवाद को छोड़ दें तो घर में रहने के दौरान और अन्य बच्चों के साथ रहने से मानसिक विकास अधिक होता है. जानकार भी मानते हैं कि बच्चों की मुस्कान कैमरे के सामने अच्छी लगती है. बावजूद इसके उस बच्चे की दुनिया किताबों, खेल के मैदानों और उससे कहीं बेहतर परिवार के बीच चमकती है. सोशल मीडिया दरअसल एक भ्रम जाल है, जो पैरेंट्स की कमाई के चक्कर में आकर्षित करता है. विशेषज्ञों का कहना है कि सोशल मीडिया को इस्तेमाल करके बच्चोें के जरिये आप पैसा तो कमा सकते हैं, लेकिन वह बच्चा क्या हासिल करता है, यह आपने नहीं सोचा. इस दौरान पाते तो पैरेंट्स है, लेकिन वह अपना स्कूल, किताबें और खेल का मैदान यानी सबकुछ खो देता है.
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