India News (इंडिया न्यूज़), आलोक मेहता, Excise Policy Scam: जब फलते-फूलते और अकूत धन संपत्ति पैदा करने वाले शराब उद्योग के बारे में निर्णय की बात आती है तो चतुर से चतुर राजनेता भी चूक जाते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तो राजनीति में आने से पहले इनकम टैक्स विभाग के बड़े अधिकारी, सूचना के अधिकार-सत्ता व्यवस्था में पारदर्शिता तथा भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन के सेनापति रहे थे। परंतु दिल्ली की शराब नीति बनाने बदलने, शराब के व्यापार को प्रोत्साहित करने के साथ राजनीतिक और चुनावी सफलताओं के मोह में भ्रष्टाचार के गंभीर मामले में जेल चले गए हैं। अब केजरीवाल के साथी और कांग्रेस गठबंधन के नेता इसे केंद्रीय जांच एजेंसियों, प्रधानमंत्री मोदी की सरकार और सतारूढ़ भाजपा द्वारा फैलाया जाल कह रहें हैं। अदालत तो सबूतों के आधार पर ही शराब घोटाले के आरोपियों को जमानत नहीं देकर जेल में रखने के आदेश दे रही है।
हाँ सजा मिलने में हमेशा की तरह देरी अवश्य हो सकती है। परंतु, इस काण्ड में कांग्रेस के नेताओं के समर्थन पर मुझे यह ध्यान आया कि शराब नीति के घोटालों पर दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री गंभीर आरोपों के कारण पहले भी क़ानूनी मामलों में फंस चुके हैं। केजरीवाल को शायद उनके साथी अधिकारी या मित्र कांग्रेसी ने नहीं बताया अथवा क्या सलाह दे दी कि घोटाले देर सबेर दब जाते हैं? बता दें कि शराब नीति और ठेकों आदि में भ्रष्टाचार के दो मामले मध्य प्रदेश के दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री के विरुद्ध आए थे। पहला मामला कांग्रेस के मुख्यमंत्री, राज्यपाल और पार्टी के उपाध्यक्ष रहे अर्जुन सिंह के सत्ता काल का है। जिसमें सरकार की शराब नीति को बदलकर किसी कंपनी को लाभ पहुँचाने और भ्र्ष्टाचार के आरोप पर जबलपुर उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने उन्हें दोषी ठहराया था।
दरअसल कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा और न्यायमूर्ति बीएम लाल ने अप्रैल 1986 में न केवल राज्य सरकार की संशोधित शराब नीति को खारिज कर दिया। असल में 30 दिसंबर, 1984 को सरकार ने निर्णय लिया कि 1 अप्रैल, 1986 से शराब नीति में बदलाव किया जाएगा। सरकारी जमीन पर शराब बनाने वाली कंपनियों को काम करने के बजाय नए प्लांट लगाने के लिए कहा। तदनुसार, फरवरी 1985 में, सरकार ने मौजूदा लाइसेंसधारियों में से सात को नई डिस्टिलरीज़ के निर्माण के लिए आशय पत्र दिए। उनके निवेश के बदले में सरकार ने उन्हें वचन दिया कि उन्हें 1 अप्रैल 1986 से शराब बनाने का पांच साल का लाइसेंस भी दिया जाएगा। मुख्य याचिकाकर्ता, जबलपुर के शराब आपूर्तिकर्ता सागर अग्रवाल ने इस आधार पर उस आदेश को चुनौती दी कि चूंकि उन्हें नई भट्टियां स्थापित करने के लिए बोली लगाने का अवसर नहीं दिया गया था।
कोर्ट ने माना कि सरकार के साथ अनुबंध करने के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया था। अपने 32 पन्नों के फैसले में, न्यायमूर्ति वर्मा ने चुने हुए सात डिस्टिलरों को नई डिस्टिलरी स्थापित करने की अनुमति देने के सरकार के फैसले को बरकरार रखा। लेकिन चुने हुए सात को ही देशी शराब बनाने और आपूर्ति करने का लाइसेंस देने की नीति को उल्लंघनकारी बताते हुए रद्द कर दिया। जस्टिस बीएम लाल के 19 पेज के फैसले की शुरुआत यह कहकर हुई कि वह अपने वरिष्ठ न्यायाधीश के “अंतिम निष्कर्ष” से सहमत हैं। लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने याचिकाकर्ताओं के अन्य तर्क को स्वीकार कर लिया कि राज्य को पहले पांच वर्षों में 56 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। इसे स्वीकार करते हुए क्योंकि “राज्य के पास इसका कोई उचित और ठोस जवाब नहीं है।”
इस मामले की सुनवाई के दौरान लाल को नई नीति को 30 साल से पांच साल करने में सरकार की ईमानदारी पर भी संदेह हुआ। न्यायमूर्ति लाल ने अपनी अलग-अलग टिप्पणियों में सरकार के खिलाफ गंभीर सख्त टिपण्णी भी की थी। जस्टिस लाल ने अपने फैसले में यह तक कहा कि ”तर्कों के मुताबिक भ्रष्टाचार का सच रिकार्ड से बाहर झांक रहा है।” नई नीति को “शरारतपूर्ण तरीका बताते हुए उन्होंने कहा कि अपने उच्च पद के आधार पर शराब नीति में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए क्योंकि वे समाज के “शैतान” हैं।’ इस निर्णय के बाद तब मध्य प्रदेश के भाजपा नेताओं ने अर्जुन सिंह के इस्तीफे की मांग की थी। अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल बन गए थे। फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चलता रहा और कुछ क़ानूनी रास्तों से जेल की नौबत नहीं आई।
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बता दें कि, शराब घोटाले से जुड़ा गंभीर भ्रष्टाचार का दूसरा मामला मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सांसद दिग्विजय सिंह के कार्यकाल का है। इनकम टैक्स विभाग के छापों के दौरान एक बड़ी शराब कम्पनी के मालिकों की डायरियों में मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी मंत्री को भी 12 करोड़ दिए जाने का विवरण मिला। इनकम टैक्स के वरिष्ठ अधिकारी ने छापे में मिले दस्तावेज और डायरी आदि लोकायुक्त जस्टिस फैजाउद्दीन को सौंप दी थी। यह मामला साल 1996 का था। लेकिन विधान सभा में 2001 में जोर शोर से उठा। तब दिग्विजय सिंह ने सदन में आरोपों को गलत बताते हुए यह भी कहा कि वह प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को पत्र लिखकर इस अधिकारी की शिकायत करेंगे कि उसने लोकायुक्त को दस्तावेज भेजकर बदनाम किया है।
दरअसल, मामला डायरी के रिकॉर्ड का था और नरसिंघ राव राज में हुए हवाला कांड का आधार सुप्रीम कोर्ट में अमान्य हो जाने के फैसले से दिग्विजय भी किसी तरह इस मामले में बच गए। यही नहीं उनके कुछ सहयोगियों का तो दावा था कि उन्होंने उस शराब कम्पनी के लोगों को अपने विरोधियों का मुंह बंद करने के इंतजाम की सलाह दी और विरोधी रास्ते से हटवा दिए। इसमें कोई शक नहीं कि भ्र्ष्टाचार या किसी भी अपराध के मामले में कानून और निचली से सर्वोच्च न्यायालय में गवाह और प्रमाणों के आधार पर ही सजा मिल सकती है या आरोप मुक्त हुआ जा सकता है। अर्जुन-दिग्विजय के सत्ता काल में डिजिटल क्रांति नहीं थी और उद्योग व्यापार भी एक सीमा में थे। अब एक सौ करोड़ या हजार करोड़ के धंधे और भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे हैं।
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केजरीवाल राज के शराब नीति घोटाले के तार दिल्ली से तेलंगाना और गोवा तक जुड़े होने के आरोप प्रमाण सामने आ रहे हैं। यदि पर्याप्त सबूत नहीं होते तो केजरीवाल के सबसे करीबी और उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, सांसद संजय सिंह और तेलंगाना के मुख्यमंत्री की बेटी तथा पूर्व सांसद और विधान परिषद् की सदस्य के कविथा जेल में नहीं होती। सिसोदिया को तो सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिल सकी। केजरीवाल के साथ प्रतिपक्ष के नेता सरकार के विरुद्ध सड़कों पर आंदोलन या सभाओं से सहानुभूति लेने का प्रयास करेंगे। लेकिन क्या वे जयप्रकाश नारायण अथवा इंदिरा गाँधी की तरह जनता की सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं? दूसरी तरफ लालू यादव अथवा अन्य नेताओं पर भ्र्ष्टाचार या अन्य अपराधों के गंभीर आरोपों मामलों के बावजूद किसी इलाके में वोट मिलने की बातें भी सामने हैं।
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