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India News (इंडिया न्यूज़),अजीत मेंदोला|संवाददाता: राजस्थान में कांग्रेस ने जिस तरह गठबंधन कर टिकट बांटे हैं, उससे फिलहाल यह लग रहा है कि भाजपा को इस बार 25 की 25 सीट जीतकर हैट्रिक बनाना मुश्किल होगा। हर सीट के हिसाब से देखें तो लगता है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी इस बार कुछ सीट निकाल सकते हैं। लेकिन, यह तभी संभव होगा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर वोटिंग के दिन तक कमजोर पड़ जाए और भाजपा ध्रुवीकरण की राजनीति को धार ना दे सके। विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने ध्रुवीकरण की राजनीति को धार देकर कांग्रेस की जीत को हार में बदल दिया था। उसके बाद भजन लाल शर्मा की अगुवाई में बनी सरकार के कुछ मंत्री और विधायक ध्रुवीकरण की राजनीति को जारी रखे हुए हैं।
प्रत्याशियों के हिसाब से दोनों दलों की तुलना की जाए तो भाजपा ने आधे से ज्यादा सीटों पर मजबूत प्रत्याशी दिए हुए हैं। लेकिन, भाजपा की इससे बात नहीं बनेगी, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी के 370 के लक्ष्य के सभी सीट जीतना बहुत जरूरी है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की भी बड़ी परीक्षा है। वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रत्याशियों की बात की जाए तो वह अपने निजी प्रयास से वोटर को कितना रिझा पाते हैं, जीत उस पर निर्भर करेगी।
कांग्रेस तीन सीट गठबंधन पर छोड़ना चाह रही है, इसमें दो सीट पर फैसला हो चुका है। गठबंधन के तहत नागौर की सीट हनुमान बेनीवाल का भी राजनीतिक भविष्य भी तय करेंगी। विधानसभा चुनाव में तो जनता ने इस बार उनकी पार्टी आरएलपी को लगभग नकार दिया था। किसी तरह से बेनीवाल जीतकर अपनी इज्जत बचा पाए। पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन कर जीता था। लेकिन, बड़बोलेपन के चलते जल्दी ही राजनीति के शिखर से धरातल में आ गए। अब कांग्रेस ने समझदारी दिखाते हुए नागौर की सीट बेनीवाल को दे दी, क्योंकि जाट बाहुल्य इस सीट पर तिकोना मुकाबला होने पर बीजेपी आसानी से जीत जाती। लेकिन, सीधी टक्कर में इस बार यह भी पता चलेगा कि बेनीवाल की जाट वोटर्स पर पकड़ वापस आई या नहीं। बेनीवाल का मुकाबला भाजपा की ज्योति मिर्धा से है। पिछली बार ज्योति मिर्धा कांग्रेस की प्रत्याशी थी। हालांकि विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने भाजपा ज्वाइन की और फिर नागौर से विधायक का चुनाव लड़ा, लेकिन सफल नहीं हो पाई। हालांकि यह भी तय है कि बेनीवाल इस बार चुनाव नहीं जीते तो उनका राजनीतिक भविष्य सवालों के घेरे में आ जाएगा।
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सीकर से माकपा नेता अमराराम चौधरी इंडी गठबन्धन के उम्मीदवार हैं। उनका मुकाबला दो बार से चुनाव जीत रहे हिन्दू चेहरा सुमेधानंद सरस्वती से है। इस सीट पर भी टक्कर अच्छी दिखाई दे रही है। वहीं, डूंगरपुर—बांसवाड़ा सीट पर भी कांग्रेस गठबंधन करना चाहती है। कांग्रेस यह सीट भारतीय आदिवासी पार्टी के लिए छोड़ सकती है। यहां पर भाजपा ने कांग्रेस से आए महेंद्र जीत मालवीय को टिकट दिया है। भारतीय आदिवासी पार्टी की क्षेत्र में अच्छी पकड़ है। वहां पर बीएपी के चौरासी विधानसभा सीट से विधायक राजकुमार रोत चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में इस सीट पर भी यदि कांग्रेस का गठबंधन हो जाता है तो एक अच्छा मुकाबला देखने को मिल सकता है। दो प्रमुख सीटें जोधपुर और कोटा—बूंदी हैं। जोधपुर में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को इस बार गैरो से ज्यादा अपनों से खतरा है। इसी तरह कोटा बूंदी में स्पीकर ओम बिड़ला को उनकी पार्टी छोड़कर कांग्रेस से प्रत्याशी बनाए गए प्रहलाद गुंजल आसानी से जीतने नहीं देंगे। अपने भी बिड़ला की राह मुश्किल कर सकते हैं। इन जैसे नेताओं को मोदी लहर के साथ ध्रुवीकरण की राजनीति की जरूरत पड़ेगी।
वहीं, चुरू में भाजपा से कांग्रेस में आए राहुल कसवां परिवार का भी राजनीतिक कैरियर दांव पर है। पांच बार से लगातार यह परिवार इस सीट को जीतता रहा है। जानकार मानते हैं कि भाजपा के प्रत्याशी देवेंद्र झाझड़िया राजनीति में एक दम नए हैं। जाति के हिसाब से देवेंद्र भी जाट हैं। इस सीट पर लड़ाई मोदी लहर बनाम राहुल कस्वां की होगी। कांग्रेस के पास मोदी जैसा कोई चेहरा नहीं है जो कस्वां की मदद कर पाए। राहुल कस्वां जीते तो नेता बन जाएंगे और हारे तो राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाएंगे।
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इन दो सीट के अलावा कांग्रेस की झुंझुनूं सीट भी मजबूत मानी जा रही है। शीशराम ओला इस सीट पर लगातार कई बार चुनाव जीते। लेकिन, 2013 में उनके निधन के बाद से भाजपा इस सीट को दो बार से जीत रही है। ओला की राजनीतिक विरासत संभाल रहे उनके बेटे बृजेंद्र ओला दूसरी बार मैदान में हैं। गहलोत सरकार में मंत्री रहे ओला विधायक हैं। कांग्रेस की जीत की संभावना अभी इसलिए जताई जा रही है कि जानकार मोदी लहर और अयोध्या लहर को कमजोर होता मान रहे हैं। अगर ऐसा है कांग्रेस सीट जीत सकती है। लड़ाई यहां पर ओला परिवार को ही लड़नी है। बृजेंद्र ओला जीते तो दिल्ली में उनकी एंट्री हो जाएगी और हारे तो राज्य की राजनीति वे कर ही रहे हैं। मोदी और अयोध्या लहर हुई तो फिर पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे बीजेपी के शुभकरण चौधरी की जीत तय है।
जालौर—सिरोही, अलवर और टोंक—सवाई माधोपुर सीट पर भी मुकाबला दिलचस्प माना जा रहा है। जालौर—सिरोही से कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला भाजपा के लुंबाराम चौधरी से हैं। वैभव लुंबाराम पर भारी पड़ते दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत के बेटे होने के चलते वह चर्चा में है। लेकिन, भाजपा का गढ़ नजर आने वाली इस सीट पर मोदी लहर से पार पाना वैभव के लिए बहुत आसान नहीं है। इसी तरह अलवर सीट पर केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव को बाहरी होने के चलते ज्यादा मशक्त करनी पड़ेगी। कांग्रेस के युवा चेहरे ललित यादव भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का कैंपेन शुरू होने से पूर्व अभी तक भूपेंद्र यादव को टक्कर देते हुए दिख रहे हैं। इसी तरह टोंक—सवाई माधोपुर सीट पर मुकाबला दिलचस्प हो गया है। भाजपा ने सुखवीर सिंह जौनापुरिया को तीसरी बार टिकट देकर कांग्रेस प्रत्याशी हरीश मीणा के लिए राह आसान की है। जौनपुरिया की जीत तभी होगी, जब कोई लहर काम करेगी। वर्ना कांग्रेस इस सीट को जीत सकती है।
जहां तक बाकी सीटों का सवाल है तो जयपुर, दौसा, जयपुर देहात, बीकानेर, पाली, अजमेर, भरतपुर, बाड़मेर, उदयपुर, झालावाड़—बारां, चित्तौड़गढ़, राजसमन्द, भीलवाड़ा, श्रीगंगानगर की सीट पर भाजपा का पलड़ा भारी दिखाई दे रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने अभी अपना चुनाव अभियान और एजेंडा हिंदी बेल्ट का सेट नहीं किया है। एजेंडा सामने आने के बाद राजस्थान की स्थिति और साफ हो जाएगी। मोदी लहर चुनाव परिणाम बदल सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे ने यूं भी माहौल बनाया हुआ है।
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