LOKSABHA ELECTION:‘अबकी बार 400 के पार’, नारे से हतोत्साहित हुई विरोधी पार्टी। This time we will cross 400', opposition party discouraged by slogan - INDIA NEWS
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LOKSABHA ELECTION:‘अबकी बार 400 के पार’, नारे से हतोत्साहित हुई विरोधी पार्टी

Itvnetwork Team • LAST UPDATED : March 13, 2024, 3:00 pm IST
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LOKSABHA ELECTION:‘अबकी बार 400 के पार’, नारे से हतोत्साहित हुई विरोधी पार्टी

India News (इंडिया न्यूज़), LOKSABHA ELECTION: Reported by- Arvind Mohan,मोदी विरोध की राजनीति को बिखरने के लिए किसी दुश्मन या मोदी-शाह जैसे रणनीतिकारों की जरूरत नहीं रही है लेकिन वह दौर याद करिये जब नीतीश कुमार की पहल पर कांग्रेस समेत अठाइस दल एकजुट होते दिख रहे थे। और उस दौर में संसद से लेकर टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में भाजपा नेताओं, जिनकी अगुआई स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे थे, का स्वर याद कीजिए कि वे किस तरह इस पहल को कोस रहे थे। ‘इंडिया’ गठबंधन को घमंडिया से लेकर न जाने क्या क्या कहा गया जिसमें से ‘इंडी’ तो चैनल एंकरों तक ने कहना शुरू कर दिया। लेकिन संसद में और बाहर भी कई मौकों पर प्रधानमंत्री ने इसे भ्रष्टाचारियों और परिवारवादियों का जमावड़ा बताया और जाहिर तौर पर खुद को भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ जंग लड़ने वाले के रूप में पेश किया। लेकिन इससे भी ऊपर का स्वर यह था कि एक शेर के खिलाफ अठाइस गीदड़ जुटे हैं लेकिन उससे शेर को क्या फरक पड़ेगा। यह अलग बात है कि उन्ही दिनों भाजपा ने भी एनडीए के लेबल को कहीं बक्से से बाहर निकाला और झाड-फूंककर सामने लाना शुरू किया। एजेंडे का एक हिस्सा इंडिया गठबंधन को अस्थिर करना भी था और वे सफल हुए या इंडिया के लोग असफल लेकिन आज की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।

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नेताओं का आरोप दलों को फँसाकर गठबंधन के लिए दबाव 

प्रधानमंत्री की तरफ से इस बीच चुनावी विमर्श तय करने वाली की सारी चीजें हुईं जिनमें राम मंदिर के उद्घाटन से लेकर भारत देने की राजनीति और सीएए लागू करने तक की लिस्ट बहुत लंबी है। इनमें कई काम ऐसे भी हुए जिनसे राम मंदिर से बनी हवा बदलने का खतरा भी लगा लेकिन अपने बच्चे के स्वस्थ होने के लिए हर माई-ब्रह्म-ओझा-गुणी के आगे सिर पटकने वाली औरत की तरह भाजपा भी चुनाव जीतने के लिए कोई चीज छोड़ना नहीं चाहती। इंडिया गठबंधन के आधा बनने और आधा बिखरने के बीच भी भाजपा और मोदी जी की तरफ से इसे भ्रष्टाचारियों और परिवारवादियों का जमावड़ा बताने और अतीत की सारी गलतियों के लिए कांग्रेस को गुनाहगार बताने का क्रम जारी है। इसकी चमक कुछ हल्की पड़ी होगी लेकिन इस बीच भाजपा नेतृत्व ने ‘अबकी बार चार सौ पार’, पचास फीसदी से ज्यादा वोट तो ‘गारंटी की गारंटी-मोदी की गारंटी’ जैसे अनेक नए नारे उछालकर विरोधियों को हतोत्साहित करने और अपने कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने का अपूर्व अभियान छेड दिया है। हैरानी नहीं कि इस आधार पर काफी सारे राजनैतिक पंडित भी चुनाव हुए बगैर चुनाव परिणाम को लेकर वही राय बना चुके हैं जो मोदी जी, उनकी सरकार और भाजपा चाहती है। कैबिनेट की बैठक तक में तीसरे कार्यकाल के लिए एजेंडा चलाने की बात कही जा चुकी है।

लेकिन इसी के संग एक और प्रयास तेज हुआ है जो एक बड़े विरोधाभास को बताता है। जब पार्टी चार सौ पार और पचास फीसदी से ज्यादा वोट को लेकर पक्की राय बना चुकी है तब वह क्यों हर राज्य में नए नए पार्टनर ढूँढने और गठबंधन बनाने की बात करती जा रही है, एनडीए को छोड़कर या उससे भगा दिए गए पुराने सहयोगियों को वापस लाने की कवायद चल रही है, उनके नखरे उठाए जा रहे हैं और दो तीन राज्यों को छोड़ दें तो हर कहीं सहयोगी दलों पर कम या ज्यादा निर्भरता दिख रही है और शीर्ष के नेता तालमेल और सीटों के बंटवारे की पंचायत में लगे हैं। उन नेताओं और दलों को भी साथ लिया जा रहा है जो शुद्ध पारिवारवादी हैं या इसी सरकार के ‘भ्रष्टाचार विरोधी अभियान’ में निशाने पर रहे हैं। कई विरोधियों का आरोप है कि इस तरह नेताओं और दलों को फँसाकर भी गठबंधन के लिए दबाव बनाया जा रहा है। पाँच-पाँच मामलों में फंसे और अभी हाल तक जेल में रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी से गठजोड़ हो चुका है। किसान आंदोलन की आहत के बीच उस अकाली दल से भी बात की जा रही है जो इसी आंदोलन को लेकर अलग हो चुकी थी और अभी भी भाजपा से अलग राय रखता है। बीजद को लाने की कवायद हो रही है।

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सहानुभूति का सहारा लेकर कांग्रेस 413 सीटों तक पहुँच गई थी

चौबीसों घंटे तथा तीन सौ पैंसठ दिन चुनाव और सरकार बनाने बिगाड़ने के खेल में इतना ‘कचरा’ जमा हो गया है, उनसे कुछ घोषित ज्यादा अघोषित इतने वायदे कर दिए गए हैं कि अब संभालने और सीट बांटने में चार सौ वाला लक्ष्य आड़े आने लगा है। बिहार जैसे राज्य में ही नहीं कई जगह भाजपा को अपनी जीती सीट छोड़ने या अपने हिस्से से राज्य सभा तथा विधान परिषद की आगामी सीटें और मंत्रिमंडल में स्थान देने जैसे काम करने पड रहे हैं और हरियाणा जैसा नतीजा भी दिख रहा है जहां गठबंधन ही टूट गया। महाबली की छवि वाले शीर्षस्थ नेता भी पैसे-दो पैसे की हैसियत वालों के आगे बिछे जा रहे हैं। दल बदल करने वालो की ही पूछ नहीं हों रही है अभी दल बदल कराया जा रहा है। टिकट बांटने के बाद भी चैन नहीं पड रहा है। उससे नाराजगी की जगह टिकट लौटाने के मामले सामने आ रहे हैं। यह क्या है इसकी अभी ढंग से न कहीं चर्चा है न भाजपा के अंदर ही कोई समीक्षा हो रही है। वहां तो जब अन्नाद्रमुक न मानी तो पनीरसेल्वं और रामदास जैसे लोगों से ही गठबंधन का प्रयास हो रहा है।

चुनावी प्रबंधन में माहिर मानी जाने वाली भाजपा की यह टीम ऐसा क्यों कर रही है इसकी चर्चा जरूरी है। कई बार हल्के तौर पर इसे चार सौ का आंकड़ा और पचास फीसदी का वोट शेयर सुनिश्चित करने का अभियान बताया जा रहा है। चार सौ की गिनती को समझना भी आसान नहीं है लेकिन पचास फीसदी का आंकड़ा तो कुछ ज्यादा ही दूर की कौड़ी है। और आज तक किसी दल को यह सफलता नहीं मिली है-इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति में कांग्रेस जरूर 413 सीटों तक पहुँच गई थी। दो तिहाई का आंकड़ा सरकार बनाने से लेकर संविधान संशोधन तक के लिए पर्याप्त होता है। तो क्या यह सब कुछ इस मंशा से भी हों रहा है। बैंग्लोर के सांसद अनंत हेगड़े इस बारे में इशारा कर चुके हैं जिससे पार्टी ने फिलहाल हाथ झाड़ लिया है। लेकिन इस लेखक को लगता है कि जिस तरह पार्टी नेतृत्व को राम मंदिर समेत की उपलब्धियों के सहारे जीत का भरोसा नहीं है उसी तरह उसे अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए सहयोगियों की भी जरूरत लगती है। देश इतना बड़ा और विविधता भरा है कि एक चेहरा कितना भी लोकप्रिय हो, ताकतवर हो, प्रचारित हो उसे भी जीत के लिए छोटे-छोटे दलों और सामाजिक-राजनैतिक समूहों के समर्थन की जरूरत होती ही है। और अब जो कुछ भाजपा कर रही है वह इसी का प्रमाण है।

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