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वैचारिक भ्रम का शिकार Varun Gandhi 

PUBLISHED BY: India News Editor • LAST UPDATED : October 13, 2021, 10:28 am IST
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वैचारिक भ्रम का शिकार Varun Gandhi 

Varun Gandhi 

Varun Gandhi


निर्मला रानी, नई दिल्ली।

भारतवर्ष में आपातकाल की घोषणा से पूर्व जब स्वर्गीय संजय गांधी अपनी मां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को राजनीति में सहयोग देने के मकसद से राजनीति के मैदान में उतरे, उस समय उन्होंने अपने जिस सबसे खास मित्र को अपने विशिष्ट सहयोगी के रूप में चुना उस शख़्सियत का नाम था अकबर अहमद ‘डंपी’। डंपी के पिता इस्लाम अहमद उत्तर प्रदेश पुलिस में आईजी थे तथा दादा सर सुल्तान अहमद इलाहबाद हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश रह चुके थे। डंपी संजय गांधी के सहपाठी होने के अतिरिक्त उनके ‘हम प्याला’ और ‘हम निवाला’ भी थे।

संजय गांधी के राजनीति में पदार्पण से पूर्व डंपी विदेश में नौकरी कर अपना कैरियर निर्माण कर रहे थे। लेकिन संजय गांधी के निमंत्रण पर वे नौकरी छोड़ भारत वापस आये और स्वयं को संजय गाँधी व उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया। वैसे तो संजय-डंपी की दोस्ती के तमाम किस्से बहुत मशहूर हैं परन्तु 1970-80 के दौर की मशहूर इन दो बातों से संजय-डंपी की प्रगाढ़ मित्रता का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक तो यह कि प्रधानमंत्री आवास में डंपी की पहुंच बिना किसी तलाशी के इंदिरा जी के बेडरूम व रसोई तक हुआ करती थी। दूसरी कहावत यह मशहूर थी कि जब संजय का बेटा (वरुण ) रोता था तो वह मां की नहीं बल्कि डंपी की गोद में चुप होता था।

संजय गांधी के इकलौते पुत्र वरुण गांधी का जन्म 13 मार्च 1980 को हुआ। जिस समय संजय गाँधी की दिल्ली में विमान हादसे में मृत्यु हुई उस समय वरुण की उम्र मात्र तीन वर्ष थी। इस हादसे के बाद नेहरू-गांधी परिवार में सत्ता की विरासत की जंग छिड़ गई। संजय गांधी की धर्मपत्नी मेनका गांधी बहुत जल्दबाजी में थीं। वह इंदिरागांधी से यही उम्मीद रखती थीं कि यथाशीघ्र उन्हें संजय गांधी का राजनैतिक वारिस घोषित किया जाये जबकि इंदिरा जी पुत्र बिछोह के शोक में डूबी ‘वेट एंड वाच ‘ की मुद्रा में थीं। नतीजतन मेनका की जल्दबाजी व अत्याधिक राजनैतिक महत्वाकांक्षा की सोच ने इंदिरा -मेनका यानि सास-बहू के बीच फासला पैदा कर दिया। उस समय कांग्रेस पार्टी के किसी एक भी वरिष्ठ नेता ने इंदिरा गांधी को छोड़ मेनका गाँधी का साथ देने का साहस नहीं किया। और उस समय भी राजनैतिक नफा नुकसान की चिंता किये बिना, अकबर अहमद ‘डंपी’ ही एक अकेला ऐसा व्यक्ति था जिसने संजय गाँधी से उनके मरणोपरांत भी दोस्ती व वफादारी निभाते हुए उनकी पत्नी के साथ खड़े होने का फैसला किया। और मेनका गांधी द्वारा गठित संजय विचार मंच के झंडे को उठाया। निश्चित रूप से डंपी का यह निर्णय राजनैतिक रूप से उनके लिये घाटे का फैसला साबित हुआ।

सवाल यह है कि ऐसे धार्मिक सौहार्दपूर्ण संस्कारों में परवरिश पाने वाले वरुण गांधी को अचानक ऐसा क्या हो गया कि 7 मार्च 2009 को उनपर चुनावी सभा के दौरान भड़काऊ भाषण देने का आरोप लग गया? उस समय उनके विरुद्ध पीलीभीत की अदालत में मुकद्द्मा दर्ज किया गया और मुकद्द्मा दर्ज होने के बाद वरुण को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ़्तार भी किया गया? उस समय वरुण गांधी अपने इन्हीं दो विवादित बयानों के चलते रातोंरात भाजपा के फायर ब्रांड नेता गिने जाने लगे थे।

वरुण ने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र पीलीभीत में एक जनसभा में कहा था कि “ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताकत है जो किसी का सिर भी कलम कर सकता है।” इसी तरह उनका दूसरा विवादित भाषण था कि “अगर कोई हिंदुओं की तरफ हाथ बढ़ाता है या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्व विहीन हैं तो मैं गीता की कसम खाकर कहता हूं कि मैं उस हाथ को काट डालूंगा।” अपने भाषण में वरुण ने महात्मा गांधी की उस अहिंसावादी टिप्पणी का भी मजाक उड़ाया व इसे ‘बेवकूफी पूर्ण ‘ बताया जिसमें गाँधी ने कहा था कि -‘कोई अगर आपके गाल पर एक चांटा मारे तो आप दूसरा गाल भी उसके आगे कर दें ‘।

वरुण का कहना था कि ‘उसके हाथ काट दो ताकि वो किसी दूसरे पर भी हाथ न उठा सके।” अपने भाषणों में वरुण गांधी मुसलमानों के नामों का मजाक भी उड़ाते सुने गये। इसी तरह वरुण गांधी की मां-मेनका गांधी ने भी अपने सुल्तानपुर चुनाव क्षेत्र में कहा था कि ‘अगर मैं मुसलमानों के समर्थन के बगैर विजयी होती हूं और उसके बाद वे (मुसलमान )मेरे पास किसी काम के लिए आते हैं तो मेरा रवैया भी वैसा ही होगा।

दरअसल नेहरू गांधी परिवार और उनके पारिवारिक संस्कार कतई ऐसे नहीं जहाँ अतिवाद या सांप्रदायिकता की कोई गुंजाइश हो। परन्तु अनेकानेक विचार विहीन ‘थाली के बैंगन’ किस्म के नेता सांप्रदायिकता व अतिवाद का सहारा लेकर महज अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये धार्मिक उन्माद का आवरण ओढ़ लेते हैं। संभव है मेनका-वरुण ने भी भाजपा में रहते व पार्टी की जरुरत को महसूस करते हुए स्वयं को भी उसी रंग में रंगने का असफल व अप्राकृतिक प्रयास किया हो।

जिस समय वरुण गांधी पर उनके उपरोक्त कुछ विवादित बयानों के बाद ‘फायर ब्रांड ‘ नेता का लेबल चिपका था उस समय ‘भगवा ब्रिगेड’ उनकी जय जयकार करने उनके पीछे लग गयी थी। उन्हें योगी आदित्यनाथ के बराबर खड़ा करने की तैयारी शुरू हो चुकी थी। यहाँ तक कि भाजपा के उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री पद के दावेदारों तक में उनका नाम लिया जाने लगा था। परन्तु चूंकि मां-बेटे दोनों के ही डीएनए में कट्टरपंथ, सांप्रदायिकता व अतिवाद शामिल नहीं था इसीलिये वे नकली ‘फायर ब्रांड ‘ बन कर रह गये।

देश के सर्वोच्च राजनैतिक परिवार के सदस्य होने के चलते ही मेनका व वरुण दोनों ने ही आज तक राजीव-सोनिया-राहुल व प्रियंका किसी के भी विरुद्ध न तो एक शब्द बोलै न ही इनके विरुद्ध चुनाव प्रचार में गये। यही खानदानी आदर्श शायद भारतीय जनता पार्टी आला कमान को रास नहीं आया। शायद इसीलिए भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से मां-बेटे दोनों की ही छुट्टी कर दी गई कहा जा सकता है कि वैचारिक भ्रम का शिकार होने की वजह से ही वरुण-मेनका गांधी को कई कई बार सांसद होने के बावजूद उपेक्षा के दौर गुजरना पड़ रहा है।

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