India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: आम चुनाव 2024 अब तक का सबसे दिलचस्प चुनाव हो गया है। बीजेपी तो अब की बार 400 पार की बात कर रही है,लेकिन विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस खुलकर अपने बारे में कोई भी दावा नहीं कर पा रही है। 2004 का हवाला जरूर देती है लेकिन 145 सीट का भी दावा करने से बच रही है। अभी तक के चुनाव को देख लगता नहीं है कि ऐसा कुछ होने जा रहा है। तब और आज के हालात पूरी तरह से बदले हुए हैं। बीजेपी एक ताकतवर चेहरे नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ रही जबकि विपक्ष के पास कोई चेहरा ही नहीं है। इसके बाद भी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का दावा है कि बीजेपी इस बार 180 पार नहीं कर पाएगी तो कांग्रेस के सहयोगी अरविंद केजरीवाल 220 तक ले जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव अपने उत्तर प्रदेश की बात करते हुए कहते हैं कि इंडी गठबंधन की उत्तर प्रदेश में 79 सीट आएंगी।
टीएमसी नेत्री ममता बनर्जी अलग तरह की घोषणा करती है कि उनकी पार्टी दिल्ली में बनने वाली इंडी गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन देगी। सभी विपक्षी दलों का अपना अपना अनुमान है। इसमें भी एकता नहीं है। विपक्ष का यह अनुमान कितना सही है या गलत है 4 जून को परिणाम वाले दिन पता चलेगा। लेकिन 2004 और 2009 के समय जब कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार जब बनी थी तो उस समय कांग्रेस ने हिंदी बेल्ट के साथ दक्षिण में ठीक ठाक सीटें पाई थीं,तब जाकर बीजेपी वाले एनडीए गठबंधन को सत्ता से दूर किया था। उस समय के आंकड़ों की 2014 और 2019 से तुलना की जाए तो कांग्रेस के लिए इस बार भी दिल्ली दूर दिखती है। दूर इसलिए कांग्रेस ने कई चूक कर दी हैं। एक वह तय नहीं कर पाई का प्रधानमंत्री मोदी के सामने चेहरा कौन होगा। जबकि 2004 में सोनिया गांधी विपक्ष का चेहरा थी।
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सोनिया को मिली सहानुभूति के चलते बीजेपी लड़ाई हारी थी। क्योंकि बीजेपी के नेताओं ने सोनिया गांधी के खिलाफ ऐसी बयानबाजी की थी जो नहीं की जानी चाहिए थी। कांग्रेसी भी वही गलती कर रहे हैं जो 2004 में बीजेपीइयों ने की थी। मतलब प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग। इसके साथ कांग्रेस ने चुनाव मजबूती से लड़ा ही नहीं। उसकी एक वजह तो अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण था और दूसरी आर्थिक स्थिति का बहुत कमजोर होना। 22 जनवरी को अयोध्या में हुए कार्यक्रम के बाद विपक्ष का मनोबल पूरी तरह से टूट गया था। उसका असर कांग्रेस पर भी पड़ा। नेता चुनाव लड़ने से बचे।
जहां तक आर्थिक स्थिति का सवाल है तो पिछले साल कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हार गई जहां से मदद मिलती। इसके साथ पैसों का हिसाब रखने वाले नेताओं ने सरकारी औपचारिकताएं कभी पूरी ही नही की और इनकम टैक्स ने शिकंजा कस दिया। हालांकि कांग्रेस ने बीजेपी पर खाता सीज का आरोप लगाया,लेकिन गलती कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं की थी जिसे पार्टी ने भुगता। अब जो कुछ मदद की बात हो रही है वह तेलंगाना,कर्नाटक और छोटे से राज्य हिमाचल से है। यहां पर भी वही उद्योगपति कांग्रेसी सरकारों की मदद कर रहे हैं जिन पर राहुल गांधी हमलावर बने रहते हैं। मतलब अडानी और अंबानी।
खैर पहले और दूसरे चरण में कम वोटिंग से विपक्ष को लगा कि स्थिति पलट रही है। फिर उसने प्रचार में आक्रमकता दिखानी शुरू कर दी। लेकिन आरक्षण और संविधान खतरे का मुद्दा गलत पकड़ लिया। इन मुद्दों को उठा जातीय राजनीति को भड़काने की कोशिश की गई। इससे नाराज अगड़ी जाति ने कांग्रेस और विपक्ष से पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया दिखता है। जिन आरक्षित जातियां को विपक्ष ने यह कर डराया की संविधान बदल आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा का उनका वोट कभी भी एक तरफा नहीं पड़ता। उसमें ओबीसी जैसा बड़ा तबका बीजेपी के साथ नजर आया। बाकी के बंटने की खबर हैं। इस बीच विपक्ष ने राजपूत समाज की नाराजगी खबरें चलाई गई।
उसके बाद जमानत पर बाहर आए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और सपा नेता अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाए जाने की बात पर जोर दे राजपूत और पढ़े लिखे वोटरों को भ्रमित करने का दांव चला लेकिन उन्हें यह ध्यान नहीं रहा कि वह साथ में आरक्षण के मुद्दे को उछाल अगड़ी जाति को खिलाफ कर रहे हैं। कांग्रेस ने रायबरेली और अमेठी में आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने की बात कम ही बोली क्योंकि दोनों सीट पर ब्राह्मण और राजपूत समाज का बोलबाला है। अब कांग्रेस और विपक्ष के मुद्दों को देख लगता नहीं है कि 2004 या 2009 जैसी कोई बात हो रही है।
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2004 की बात करें तो कांग्रेस ने 145 सीट हासिल कर बाकी विपक्षी दलों की मदद से सरकार बनाई थी। उस समय कांग्रेस ने 417 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार कांग्रेस 304 के आसपास ही चुनाव लड़ रही है। 2004 में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 29 सीट आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में जीती थी। इस बार आंध्र प्रदेश की 25 सीट में से एक में भी उम्मीद कम है। तेलंगाना की 17 सीट में से 7 से 8 की बात हो रही है। कर्नाटक में तब कांग्रेस ने 8 सीट जीती थी इस बार घटने की बात हो रही है। गुजरात में तब कांग्रेस ने 12 सीट जीती थी 2014 और 2019 के रिजल्ट को देखें तो इस बार भी गुजरात में खाता खुलता नहीं दिख रहा है।
अब हिंदी बेल्ट उत्तर प्रदेश लेते हैं 2004 में 9 तो 2009 में 21 सीट जीती थी। इस बार ज्यादा से ज्यादा 2 से 3 सीट जीत की बात हो रही है। राजस्थान में तब कांग्रेस ने 4 सीट ही जीती थी इस बार 4 से 5 की हो रही है। कांग्रेस दावा 12 से 13 का कर रही है। मध्यप्रदेश में तब कांग्रेस ने 4 सीट जीती थी इस बार भी वहां पर हालात विशेष बदलते नहीं दिख रहे हैं 2019 जैसा रिजल्ट आ सकता है। हिमाचल में तब 3 मिली थी इस बार एक आने को लेकर संशय बताया जा रहा है। तमिलनाडु में तब दस थी इस बार पुडुचेरी को मिला दस सीट पर लड़ रही है। इतनी सीट कांग्रेस रिपीट कर सकती है। महाराष्ट्र में तब 13 थी इस बार कुछ कह पाना मुश्किल है।
2014 और 2019 में कांग्रेस के हाथ बहुत कुछ नही आया था। इस बार उद्धव ठाकरे और शरद पंवार के गठजोड़ में कांग्रेस 19 सीट पर लड़ रही है। जानकार 4 से 5 की बात कर रहे हैं। अगर 2004 की तरह 13 सीट लाती है तो फिर कांग्रेस की 2019 के मुकाबले कुछ सीट बढ़ सकती है। बंगाल में तब कांग्रेस ने 6 जीती थी अब एक की ही बात हो रही है। पंजाब में तब 2 सीट थी,इस बार 3 से 4 की बात हो रही है। 2019 कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 11 सीट पंजाब में जीती थी। इस बार बड़ा नुकसान हो सकता है। बिहार में तब कांग्रेस की 3 सीट आई थी इस बार 2019 दोहराते हुए दिख रही है कांग्रेस। मतलब एक भी सीट नहीं।
उत्तराखंड में इस बार भी कोई सीट आती नहीं दिख रही है। जबकि 2004 में 1 सीट थी। छत्तीसगढ़ में एक सीट मानी जा रही है,तब भी एक ही सीट आई थी,चंडीगढ़, दमनदीव,अंडमान निकोबार में कांग्रेस ने तब एक एक सीट जीती थी। इस बार इनमें से एक में जीतने की संभावना जताई जा रही है। केरल की 20 सीट पर कांग्रेस को तब कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी। केरल में कांग्रेस इस बार 15 से ज्यादा की उम्मीद कर रही है। झारखंड में इस बार खाता खुलेगा इसको लेकर आशंका है। तब 6 सीट जीती थी। उड़ीसा में कांग्रेस को तब दो सीट मिली थी। इस बार खाता खुलेगा इसको लेकर संदेह है। क्योंकि वहां पर भी कांग्रेस खत्म सी हो गई है।
असम की 14 सीट में से तब कांग्रेस को 9 मिली थी। अब हालात पूरी तरह से बदल गए है ऐसे में कांग्रेस चमत्कार करेगी तब जा कर एक से दो सीट की उम्मीद जताई जा रही है। एक हिंदी प्रदेश हरियाणा है कांग्रेस आज के दिन 3 से 4 पर टक्कर में बताई जा रही है तब 9 सीट कांग्रेस ने जीती थी। जम्मू कश्मीर में तब 2 सीट थी कांग्रेस के पास। अब भी इतने की उम्मीद बताई जा रही है। दिल्ली में तब कांग्रेस की 6 सीट थी। इस बार लड़ ही तीन पर रही है। पिछले दो चुनाव में खाता ही नहीं खुला। दरअसल 2014 की करारी हार के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, मध्य प्रदेश,राजस्थान, उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों में जैसे ध्यान दिया जाना चाहिए था दिया ही नहीं।
राजस्थान जैसा राज्य कमजोर केंद्रीय नेतृत्व के चलते गंवा दिया। मध्यप्रदेश कांग्रेस में आपसी झगड़ो के चलते खत्म हो गया। यही हाल सबसे मजबूत राज्य पंजाब का हो गया। बंगाल और उड़ीसा में पार्टी खत्म हो गई। असम समेत नार्थ ईस्ट में नेता ही नहीं बचे। उत्तर प्रदेश और बिहार में नेता ही नहीं रहे है। घटक दलों के सहारे पार्टी चल रही है। आंध्रप्रदेश में भी रीजनल पार्टियां ने जगह बना ली। हरियाणा में 20 साल से चल रही गुटबाजी जारी है। इन हालात में कांग्रेस को ले दे कर केरल का सहारा है। वहां पर भी वामदल अब कांग्रेस को भाव देंगे लगता नहीं है।
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केरल और तमिलनाडु को छोड़ पूरे देश में एक भी राज्य नहीं है जहां कांग्रेस दावे से कह सके इतनी सीट जीत रहे हैं। राजस्थान में जो भी सीट जीतने की बात हो रही है वह केवल जातीय समीकरण और प्रत्याशी के चलते है। कांग्रेस के नहीं। हरियाणा में 3 से 4 सीट पर टक्कर बीजेपी के दस साल की एंटी इंकनवेसी और कमजोर प्रत्याशियों के चलते है। कांग्रेस केवल आरक्षण के दम पर या आम जन के बीजेपी से नाराज होने की उम्मीद पर चुनाव लड़ती दिख रही है। कोई ऐसी लहर नहीं है जिससे माना जाए कि कांग्रेस 100 का आंकड़ा भी टच कर ले। जो कुछ है उम्मीद और हवा में है। जमीन में कुछ नहीं।