Lok Sabha Election 2024: This time caste is more effective than 2014 and 2019 | जाति इस बार 2014 और 2019 से ज्यादा प्रभावी
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Lok Sabha Election 2024: जाति इस बार 2014 और 2019 से ज्यादा प्रभावी

Sailesh Chandra • LAST UPDATED : May 8, 2024, 1:08 pm IST
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Lok Sabha Election 2024: जाति इस बार 2014 और 2019 से ज्यादा प्रभावी

Mid Term Elections

India News (इंडिया न्यूज), अरविन्द मोहन, नई दिल्ली: संविधान बचाने की बात करते हुए भाजपा विरोधी दल जरूर आरक्षण पर जोर दे रहे थे और संविधान पर आंच का मतलब आरक्षण पर आंच बताकर दलित और पिछड़ों को अपनी ओर गोलबंद करने की कोशिश कर रहे थे, पर धीरे धीरे जाति इस बार के चुनाव का एक बड़ा विमर्श बन जाएगा और इसी से भाजपा को दिक्कत होने लगेगी इसका अंदाजा शायद ही किसी को था। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि राहुल गांधी ने हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जातिवार जनगणना का सवाल बहुत जोर-शोर से उठाया था और कांग्रेस उन राज्यों में भी बुरी तरह हारी जहां उसकी स्थिति अच्छी लग रही थी। कहते हैं कि मध्य प्रदेश के कुछ बड़े कांग्रेसी नेताओं ने प्रदेश में जाति के सवाल को न छेड़ने की सलाह देने के साथ इंडिया गठबंधन की बैठक न होने दी या उसके नेताओं को चुनाव प्रचार में आने नहीं दिया। जाति के पिच पर भी उस्तादी दिखा चुके नरेंद्र मोदी ने जब हिन्दी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों के साथ हरियाणा के लिए नए मुख्यमंत्री का चुनाव किया तो जातिगत समीकरणों का पूरा ध्यान रखा। और वे इस बार के प्रचार में संविधान के मसले पर अपना पक्ष मजबूती से रखते रहे लेकिन चुनाव प्रचार में या उम्मीदवारों के चयन में जाति के सवाल को कभी नहीं भूले।

पर जैसे ही पहला दौर बीता और मतदान में गिरावट आई, मोदी जी का स्वर बदल गया। राजस्थान में उन्होंने मंगलसूत्र और कांग्रेस के सत्ता में आने पर हिंदुओं की संपत्ति छीनकर मुसलमानों को देने जैसे निम्न स्तर की बात शुरू कर दी। मोदी की गारंटी की जगह कांग्रेसी घोषणापत्र पर आक्रमण शुरू किया। बीजद सरकार का एक्सपायरी डेट बताने लगे। ये बदलाव काफी लोगों को हैरान करने वाले थे। विपक्ष ने जैसे तैसे प्रचार अभियान शुरू किया था पर वह तानाशाही/संविधान पर खतरा से लेकर बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की मुश्किलें, अग्निवीर योजना की आलोचना और भाजपा के मुसलमान/पाकिस्तान द्वेष को मुद्दा बनाने में लगा रहा।

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तीन हफ्ते और चुनाव के तीसरे दौर तक आते आते चुनाव प्रचार को और भी मसाले मिले- झारखंड में कांग्रेसी मंत्री से जुड़े ठिकाने पर नोटों की गड्डियों से लेकर कर्नाटक में भाजपा के सहयोगी दल के उम्मीदवार प्रज्ज्वल और देवगौड़ा परिवार के कुकर्मों का अपूर्व वीडियो खजाना। दल बदल से लेकर उम्मीदवार बदलने और मैदान छोड़ने की घटनाएं भी हुईं। लेकिन चुनाव प्रचार और तैयारियों मे भारी लीड के बावजूद भाजपा की बेचैनियां कम नहीं हुईं। टेक्सला के प्रमुख की प्रस्तावित भारत यात्रा का वादा पूरा न होना भी मुद्दा बना और सैम पिटरोड़ा का बयान भी। पाकिस्तान और मुसलमान तो आगे किया ही गया, मोदी जी अयोध्या हो आए और भगवान राम की मूर्ति का सूर्य अभिषेक करने जैसे बचकाना खेल भी हुए।

लेकिन जाति का मसला दिन ब दिन जोर पकड़ता गया। इसमें सिर्फ महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के सवाल पर पहले से जातिगत खलबली थी। पर राजस्थान में अचानक जात आरक्षण उभर आया। केन्द्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला के एक बयान से देश भर के राजपूत उखड़ गए। उत्तर प्रदेश में वी के सिंह जैसों का टिकट काटना और झारखंड में एक भी राजपूत को टिकट न देना भी भाजपा के लिए परेशानी का कारण बनने लगा। बिहार में सिर्फ एक और उत्तर प्रदेश में सिर्फ दो वैश्य उम्मीदवार देने से भाजपा का यह मूल आधार भी नाराज बताया जा रहा है।

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उधर अखिलेश और लालू यादव ने मुसलमानों का टिकट कम किया(और उत्तर प्रदेश में बसपा ने मुसलमानों का टिकट बढ़ाकर भाजपा की मदद की, यह आरोप लगता रहा) तथा उस कोइरी/कुशवाहा/मौर्य का टिकट बढ़ाया जिससे एक साफ बदलाव दिख रहा है। अखिलेख ने तो अपने परिवार के अलावा अहीरों का टिकट भी कम किया है। उधर तेजस्वी यादव ने सब ओर से ठुकराए मुकेश साहनी को न सिर्फ अपने साथ लिया( और अपने हिस्से से तीन सीट देने के साथ उम्मीदवार भी पकड़ा दिए) बल्कि उनको चुनाव प्रचार में लगातार साथ रखा। यादवों के बाद कोइरी/कुशवाहा और मल्लाहों की संख्या सबसे ज्यादा है और वे गोलबंद भी हुए हैं।

कांग्रेस ने भी एक खेल किया है। उसने हिन्दी पट्टी में सभी जगहों पर जाति का गणित साधने का प्रयास किया है। इसमें उसने भाजपा के निवर्तमान सांसदों से लेकर महत्वाकांक्षी नेताओं को टिकट देने में परहेज नहीं किया। और जहां अपना उम्मीदवार या ऐसा बाहरी उम्मीदवार न मिला तो उसने सिर्फ जाति का गणित देखकर उम्मीदवार उतार दिए हैं। भोपाल में कायस्थ और मुसलमान वोट ठीकठाक हैं तो एक अनाम से कायस्थ उम्मीदवार को टिकट दे दिया गया। सिंधिया के प्रभाव वाले इलाके हों या पुराने रीवा रियासत के इलाके इनके पारंपरिक जातीय टकरावों को ध्यान में रखकर सामने किए गए उम्मीदवार अचानक मुकाबले में आ गए लगते हैं जबकि यहां भाजपा ने पिछला चुनाव भारी अंतर से जीता था। अब वह अंतर पाटना आसान नहीं है लेकिन कुछ महीनों में ही विपक्ष इस तरह खड़ा हो जाए तो यह जाति का गणित ही है।

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छत्तीसगढ़ में भी यही हो रहा है और हरियाणा में भी। यहां तो शुरूआत तो भाजपा ने ही की थी, गैर-जात राजनीति को आगे करके। बिहार और उत्तर प्रदेश में उसने भी जातिगत समीकरणों का पूरा ध्यान रखा है लेकिन दो मामलों में चूक हुई है। मजबूत केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा की मामलों में अपनी जिद चलाने से नुकसान दिखता है। पर इससे भी ज्यादा पुराने चेहरे दोहराने से भी जातिका जादू ही नहीं मोदी का जादू भी कमजोर होता दिखता है। ले देकर सारे भाजपा उम्मीदवार ही नहीं एनडीए के उम्मीदवार मोदी-मोदी कर रहे हैं और लाख प्रयास करके भी मोदी जी के लिए उतना बोझ उठाना मुश्किल है जितना नौजवान राहुल, प्रियंका, अखिलेश और तेजस्वी उठा रहे है।

और फिर चुनाव विज्ञान का वह चर्चित फार्मूला अपने आप प्रभावी होता दिखता है कि जब जाति का विमर्श हावी होगा तो सांप्रदायिक विमर्श पीछे जाएगा और जब साम्प्रदायिक विमर्श हावी होगा तो जाति का विमर्श पीछे रह जाता है। वैसे अब भाजपा भी ब्राह्मण बनिया पार्टी से बहुत आगे निकाल चुकी है और कांग्रेस का आरक्षण या जातीय कार्ड खेलने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है और उसके नेताओं को जातीय जनगणना और आरक्षण के सवाल पर बहुत सफाई देनी पड रही है और जाति को आधार बनाकर राजनीति करने वाले भाजपा विरोधी परिवारवाद और भ्रष्टाचार के फंदे में भी फंसे हैं। पर दो बातें साफ हैं। काम से काम पिछले दो चुनावों की तुलना में इस भार भाजपा के पास कोई केन्द्रीय मुद्दा नहीं है। दूसरे इस बार इन तीन चुनावों में सबसे ज्यादा प्रबल ढंग से जाति दिखाई दे रही है, भले वह मण्डल वाले डऔर जैसी न दिखती हो।

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