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Modi 3.0: मोदी के लिए कठिन नहीं डगर गठबंधन की, 1975 से बनाते रहे रिश्ते

PUBLISHED BY: Sailesh Chandra • LAST UPDATED : June 11, 2024, 3:35 pm IST
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Modi 3.0: मोदी के लिए कठिन नहीं डगर गठबंधन की, 1975 से बनाते रहे रिश्ते

Modi Government 2024

India News (इंडिया न्यूज), आलोक मेहता: टीवी न्यूज़ चैनल पर ही नहीं मुंबई बंगलुरु से भी प्रभावशाली लोग फोन करके पूछ रहे हैं कि मोदीजी क्या गठबंधन की सरकार चला सकेंगें? मोदीजी क्या चंद्रबाबु नायडू और नीतीश कुमार जैसे पुराने राजनैतिक खिलाडियों के दबाव को झेल सकेंगे? मैंने उत्तर दिया – ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले वर्षों के दौरान विरोधियों को स्वयं कहते रहे हैं कि लोग मुझे ठीक से जानते नहीं हैं। मैं हर परिस्थिति से निपटना जानता हूँ। और मैं भी यह बात जानता हूँ कि 1975 की इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत साहसी युवा कार्यकर्ता के रुप में सोशलिस्ट जॉर्ज फर्नांडीस और कांग्रेसी रवींद्र वर्मा जैसे नेताओं से मिलते आपात काल के विरोध में गतिविधियां संचालित करते रहे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपर्क और प्रेरणा से उन्होंने नव निर्माण आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। एक पत्रकार के नाते तब से गुजरात में करीब एक साल रहने और बाद में दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख संगठन महासचिव के रुप में अटल आडवाणी युग में अपनी पार्टी के सम्बन्ध विभिन्न दलों और उनके नेताओं से जोड़ने का महत्वपूर्ण योगदान दिया था।”

मैंने कहा – “जार्ज, बंसीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, फारुख अब्दुल्ला, प्रकाश सिंह बादल, बालासाहेब ठाकरे जैसे परस्पर विरोधी दिग्गज राजनेताओं के साथ तालमेल कर हरियाणा, पंजाब, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, गुजरात की राजनीति करना आसान नहीं था। यही नहीं संघ भाजपा के संगठन कार्य और हिमालय क्षेत्र के पर्वतारोहण मिशन, तिब्बत कैलाश मानसरोवर की कठिन यात्राओं के साथ देश के विभिन्न हिस्सों में रेल, बस, स्कूटर, कार जीप से यात्रा करते हुए सैकड़ों लोगों से संपर्क रखने के अनुभव मोदी के पास हैं। इसलिए नायडू, नीतीश कुमार या अन्य क्षेत्रीय नेताओं को साथ लेकर चलने में उन्हें कैसे मुश्किल आएगी।”

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गुजरात के मुख्यमंत्री के रुप में उन्होंने भाजपा के अंदरुनी खेमों गुटों को अपने ढंग से सँभालते हुए अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों, परस्पर प्रतियोगी संस्थानों, कारपोरेट घरानों, भारतीय मजदुर संघ या अन्य संगठनों और मीडिया घरानों को भी साधने में राजनीतिक चातुर्य दिखाया है। यह बात सही है कि अपनी कई गतिविधियों, कामकाज को बहुत हद तक सार्वजनिक नहीं करने की विशेषता के कारण बहुत कम लोग उनके व्यक्तित्व को जानते समझते हैं। बहुत धैर्य और गोपनीयता के साथ काम करने वाले नेता भारत ही नहीं विश्व में कम मिलते हैं। तभी नोटबंदी और कश्मीर की धारा 370 ख़त्म करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय करना सम्भव हुआ।

वर्तमान सन्दर्भ में आंध्र और लोक सभा चुनाव से पहले तेलुगु देशम पार्टी के वरिष्ठ नेता चंद्रबाबू नायडू को वापस भाजपा गठबंधन से जोड़ना फलदायी साबित हो रहा है। यह नायडू के लिए भी बहुत जरुरी रहा है। वह पहले अटल सरकार के दौरान राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन ( एन डी ए ) के साथ थे, लेकिन 2002 में नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग को लेकर बाहर हो गए थे। फिर 2014 में एन डी ए के साथ आए और बाद में आंध्र को विशेष दर्जे की मांग के बहाने छोड़ गए। बहरहाल आंध्र में सत्ता से बाहर रहने और जगन मोहन रेड्डी सरकार द्वारा जेल भेजे जाने के बाद नायडू को नरेंद्र मोदी का दामन संभालकर वापस सत्ता में आने का लाभ मिल रहा है।

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लोकसभा चुनाव के बाद एन डी ए संसदीय दल की बैठक में नायडू ने जिस तरह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन और प्रशंसा में भाषण दिया और आंध्र के साथ सम्पूर्ण देश के सामाजिक आर्थिक विकास का विश्वास व्यक्त किया, उसके बाद मोदी के साथ सम्बन्ध तोड़ने की सारी अटकलों पर विराम लग जाता है। नायडू ही नहीं तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु के क्षेत्रीय नेता नरेंद्र मोदी के साथ संबंधों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। पूर्व प्रधान मंत्री एच डी डेवेगोडा पिछले वर्षों के दौरान संसद में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और कामकाज की जमकर तारीफ करते रहे हैं।

इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री जनता दल ( यूनाइटेड ) नीतीश कुमार के साथ तीन दशकों में कड़वे खट्टे मीठे सम्बन्ध बनते बिगड़ते रहे हैं। नीतीश ने तेवर और पाले बार बार बदले, लेकिन उनकी ईमानदारी पर आज तक कोई दाग नहीं लगा। यही कारण है कि नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक दूरियां होने पर भी के सी त्यागी और रामनाथ ठाकुर और हरिवंश जैसे वरिष्ठ नेताओं के माध्यम से अपने राजनीतिक तार जोड़े रखे। फिर पिछले साल लालू यादव के माया जाल में फंसकर बहुत अपमानित होकर नीतीश लोक सभा चुनाव से पहले मोदी के नेतृत्व वाले एन डी ए की शरण में आ गए।

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कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिए जाने और भाजपा जद ( यु ) के साथ रहने से लोकसभा चुनाव में सबको लाभ हुआ। चिराग पासवान और जीतनराम मांझी से कटुता भी मोदी के कारण ख़त्म हुई। तीनों ने अब मोदी सरकार के साथ ही अपने और बिहार के हितों के लिए साथ निभाने का संकल्प लिया है। नीतीश कुमार ने तो संसद भवन की मीटिंग में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के पैर तक छूकर संबधों को सदा निभाने का भावनापूर्ण बातें कह दी।

महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा, पंजाब और असम, सिक्किम सहित पूर्वोत्तर राज्यों के प्रमुख नेताओं से मोदी के सम्बन्ध लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। अब महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखण्ड के विधान सभा का बिगुल अगले कुछ महीनों में बजने वाला है। इसलिए भाजपा और क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं का शक्ति परीक्षण होने वाला है। शिव सेना के शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे के अलावा पवार परिवार को मोदी के साथ या विरोध का फैसला करना होगा। इसे मोदी की उदारता ही कही जाएगी कि उन्होंने पहले उद्धव ठाकरे और फिर एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनवाया, जबकि भाजपा के पास अधिक विधायक थे। नीतीश की तरह ठाकरे ने ही भाजपा का साथ छोड़ा था।

शिंदे की शिव सेना और अजीत पवार की एन सी पी के साथ के बावजूद लोक सभा चुनाव में भाजपा को लाभ नहीं हुआ। अब तीनों को विधान सभा चुनाव के लिए नई रणनीति बनानी होगी। यही हाल हरियाणा में चौटाला परिवार की पार्टियों का है। जातिगत बंटवारे ने एक बार फिर उत्तर भारत की राजनीति को दलदल में फंसा दिया है। दुर्भाग्य यह है कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने भी लालू यादव की शरण लेकर वही बीमारी पाल ली है। जो भी हो 2024 के अंत तक देश की राजनीति को एक निर्णायक रास्ता मिल जाने की उम्मीद करनी चाहिए।

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